Monday, July 4, 2011

राजनीति में महिलाओं की ताकत

बिहार विधानसभा चुनाव में जीत के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था इस जीत में महिलाओं का बड़ा योगदान है। यह जीत बिहार की महिलाओं की जीत है। नीतीश कुमार ने यह कहकर राजनीति में महिला शक्ति के उत्थान को आवाज दी, जिसके लक्षण हमें पिछले कुछ सालों में दिखाई दे रहे थे। पिछले कुछ समय से महिला राजनेताओं ने गांव स्तर के चुनाव से लेकर राष्ट्रपति के चुनाव में अपनी मजबूत भागीदारी दर्ज की है।

पहले कहा जाता है कि महिलाओं का राजनीतिक रूप से सशक्तिकरण सिर्फ सांकेतिक है, लेकिन बिहार चुनाव के बाद से जो संकेत हमें दिखाई दे रहे हैं, उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि राजनीति के भीतर महिलाओं का सशक्तीकरण सिर्फ सांकेतिक नहीं रह गया है। वे सचमुच में देश की राजनीति की दशा और दिशा को बदलने में सक्षम हो गयी हैं। दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में सत्ता महिला मुख्यमंत्रियों के हाथों में है। प्रतिभा पाटिल, सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज आदि ऐसे नाम है जिनके हाथ बेहद मजबूत हैं। यहां तक की पंचायत स्तर पर भी कुछ महिलाओं ने अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए जागरुकता दिखाई है। वे अब राजनीति में सिर्फ पुरुषों की अनुगामी बनकर नहीं रहना चाहती है। अगर हम मुख्यमंत्रियों की बात करें तो सबसे बड़ी बात यह है कि इन मुख्यमंत्रियों का कुर्सी तक का सफर खुद की बदौलत तय किया हुआ है। पश्चिम बंगाल में ममता ने एक लंबा और कठिन राजनीतिक युद्ध लड़ा है। उन्होंने वामपंथी किले को ध्वस्त करने में अपनी राजनीतिक समझ का परिचय दिया है। यह एक ऐसा किला था जिसे भारत के बड़े राजनीतिक नेता और पंडित तोड़ पाने में असफल थे। इसी तरह जयललिता अपनी पुरानी छवि से बाहर आते हुए परिपक्व राजनेता का परिचय दिए। भ्रष्टाचार के विभिन्न आरोपों के बावजूद जयललिता पर तमिलनाडु के मतदाताओं ने भरोसा जताया है। जयललिता ने अपनी राजनीति छवि बदलकर वामपंथी और छोटे दलों से गंठबंधन किया। यह इस बात को प्र्दशित कर था कि महिला नेता तमाम राजनीतिक दांव-पेंच को बखूबी आजमा सकते हैं और उनका इस्तेमाल भी कर सकते हैं।

उत्तर प्रदेश में मायावती के उदय के पीछे भले ही कांशीराम का नाम लिया जाता है लेकिन सत्ता में आने के लिए उन्होंने जिस सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लिया था, उसने बड़े-बड़े राजनीतिक पंडितों को आश्चर्य में डाल दिया। आज भी उत्तर प्रदेश में मायावती की पहचान मजबूत राजनेता की है। इसी तरह दिल्ली में शीला दीक्षित ने पार्टी के भीतर और बाहर के अपने राजनीतिक विरोधियों का कुशलता से सामना किया है। हां, यह उभार हमें बड़ी संख्या में इसलिए नहीं दिखाई पड़ रहा है क्योंकि महिलाओं की संख्या अभी भी ज्यादा नहीं है। भारत में महिलाओं को भले ही राजनीतिक अधिकार बहुत पहले मिल गया हो लेकिन आज राष्ट्रीय राजनीति में उनकी जो हैसियत और दबदबा है वह कभी नहीं था। नब्बे के दशक के बाद शुरू हुआ महिलाओं के सशक्तिकरण का दौर अब और ऊंचाई की मांग कर रहा है। महिलाओं ने कॉरपोरेट सेक्टर से लेकर हर क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन किया है। अब हमें उम्मीद है कि आने वाले दिनों में जब संसद का सत्र चलेगा तो महिला बिल जो काफी लंबे समय से रुक रहा है, उसे पारित कराने में इन महिलाओं की बड़ी भूमिका होगी और पुरुष राजनेताओं के ऊपर एक दबाव होगा जिसके चलते वे इसे पास कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। अगर ऐसा होता है तो यह महिलाओं की राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए एक खास उपलब्धि होगी और यह भी उम्मीद है कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी।

बंगाल, बिहार, तमिलनाड़ु और उत्तर प्रदेश में आए इस बदलाव को हम राजनीति का नया प्रयोग भी कह सकते हैं। भारत में कभी कुर्सी पाने के लिए मंडल और कमंडल का सहारा लिया जाता था, पर अब महिला मतदाताओं और राजनेताओं का सहारा लिया जा रहा है।

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